नई दिल्ली। आज के दौर में देश में अवसाद (डिप्रेशन) तेजी से बढ़ रहा है। अब देखने में यह भी आ रहा है कि किशोर अवस्था में ही यह तेजी से पांव पसार रहा है। ऐसा कहा जा सकता है कि भारत में पिछले एक दशक में किशोरों में अवसाद तेजी से घर कर रहा है। पचास प्रतिशत मामलों में 14 साल से कम उम्र में के बच्चे इस रोग की चपेट में आ रहे हैं।
वल्र्ड मेंटल हेल्थ डे
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. राजेश कुमार सागर ने वल्र्ड फेडरेशन फॉर मेंटल हेल्थ (डब्ल्यूएफएमएच) द्वारा 10 अक्टूबर को मनाये जाने वाले वल्र्ड मेंटल हेल्थ डे के मौके पर बातचीत में कहा कि विश्वभर में अवसाद गंभीर समस्या बन गया है और भारत का किशोर और युवा वर्ग तेजी से इसकी गिरफ्त में आते जा रहा है।
यंग पीपुल एंड मेंटल हेल्थ इन चेंजिग वल्र्ड
प्रोफेसर सागर ने कहा कि देश की आबादी में 34 प्रतिशत से अधिक 15 से 34 वर्ष आयु के लोग हैं लेकिन यह बेहद दुखद है कि विश्व के सबसे युवा देश में 50 प्रतिशत मामलों में 14 साल से कम उम्र के बच्चों में अवसाद की शुरुआत हो जाती है। यह उम्र का नाजुक मोड़ है और छुईमुई सी जिंदगी को भावनात्मक से लेकर प्रोफेशनल स्तर तक संवारने में माता-पिता की भूमिका बहुत अहम है। प्रोफेसर सागर ने स्पष्ट किया कि डब्लूएफएमएच अवसाद के खिलाफ जागरुकता फैलाने और उसके खिलाफ अभियान में तेजी लाने के लिए प्रतिवर्ष एक विषय चुनता है। इस बार का विषय यंग पीपुल एंड मेंटल हेल्थ इन चेंजिग वल्र्ड है।
कई कारण हैं
विज्ञान की प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लांसेट समेत कई पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लिखने वाले प्रोफेसर सागर ने कहा कि अवसाद के लिए किसी एक कारण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके पीछे कई कारण हैं। बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश और आर्थिक दबाव प्रमुख कारणों में शामिल हैं।
युवा वर्ग में अकेलापन बढ़ा
उन्होंने कहा कि तेजी से बदल रहे विश्व में हर कदम पर प्रतियोगिता और तनाव है जिससे सबसे अधिक युवा वर्ग प्रभावित होता है। सामाजिक बदलाव का परिवार के संरचना पर गहरा असर पड़ा है और इसके कारण युवा वर्ग में अकेलापन बढ़ा है। कामकाजी माता-पिता के पास बच्चों के लिए बमुश्किल समय होता है और ऐसे में बच्चे अपना अधिक से अधिक समय ऑनलाइन गेम खेलने और नेटसर्फिंग करने में व्यतीत करते हैं। यह विडंबना है कि बच्चे वास्तविक जीवन में, बाहर हिंसा तो देख ही रहे हैं और वरचुयल वल्र्ड में भी हिंसक खेल ही देख रहे हैं।
यह भी है कारण
उन्होंने कहा कि परिवार के बदले स्वरूप के तहत लोगों में एक बच्चा रखने का फैशन बन गया है। वनली चाइल्ड इज द लॉनेली चाइल्ड की धारणा बच्चे के सर्वांगीण विकास में बाधक है। बच्चे अपने भाई-बहनों से ही आपस में मेल से रहने और एक-दूसरे को हर चीज में बराबर के भागीदार समझने की पाठ सीखते हैं। बच्चे घर में हम उम्र नहीं होने से अकेलापन महसूस करते हैं जो आगे जाकर अवसाद का कारण बन सकता है। इसके अलावा तलाक के बढ़ते मामले और सिंगल पैरेंट के चलन से उपजी स्थिति के साथ बच्चे तालमेल नहीं बैठा पाते हैं और उनमें निराशा होने लगती है। यह स्थिति भी उन्हें अवसाद की ओर अग्रसर करने में अहम है।
कई लक्षण हैं
प्रोफेसर सागर ने कहा कि रोजमर्रा के काम करने में अनिच्छा, थकावट, अनिद्रा, भ्रम की स्थिति, भूख नहीं लगना अथवा अधिक भूख लगना, सोचने की शक्ति में कमी एवं बेवजह दुखी होना आदि समेत अवसाद के कई लक्षण हैं। अगर इनमें से कोई भी लक्षण दो सप्ताह से अधिक समय तक रहता है तो तुरंत मनोचिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए। समय से इलाज शुरू होने पर अवसाद से शीघ्र छुटकारा पाया जा सकता है और कभी-कभी इलाज लंबा भी चल सकता है। अवसाद के कारण आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। एम्स में अवसाद के इलाज के लिए किशोरों के लिए अलग प्रकोष्ठ है।
आंकड़ों पर दें ध्यान
लोकनीति-सीएसडीएस यूथ सर्वेक्षण में 30 प्रतिशत युवाओं ने कहा कि वे अकेलापन महसूस करते हैं। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अनुसार देश की आबादी में 34 प्रतिशत से अधिक 15 से 34 वर्ष आयु के लोग हैं लेकिन यह बेहद दुखद है कि बड़ी संख्या में युवा अवसाद में देखे जा रहे हैं। शहरी आबादी के 37 प्रतिशत युवा अवसाद में हैं।