लखनऊ। सिकल सेल रोग खून से जुड़ी एक बीमारी है, जो बच्चे में अपने माता या पिता या दोनों से आनुवंशिक रूप से आती है। आनुवांशिक रक्त विकार के कारण होने वाले सिकल सैल रोग के मामले में भारत दुनिया के दूसरे नम्बर पर है, और यह दक्षिणी भारत, छत्तीसगढ़, बिहार, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश के आस-पास के क्षेत्रों में सबसे ज्यादा पाया जाता है। इस बीमारी में खून में पर्याप्त संख्या में लाल रक्त कोशिकाएं (आरबीसी/ रेड ब्लड सैल्स) नहीं होतीं, जो शरीर में ऑक्सीजन ले जाने के लिए जरूरी हैं। आमतौर पर यह बीमारी अफ्रीका, अरब और भारतीय प्रायद्वीप में पाई जाती है।
सिकल सैल रोग खून का आनुवंशिक विकार
विश्व सिकल सैल दिवस के मौके पर इन्द्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल्स की ओर से आयोजित स्वास्थ्य जागरुकता कार्यक्रम में रोग के लक्षणों और इसके मरीजों की देखभाल के तरीकों पर जानकारी देते हुये रक्त विकार के प्रमुख विषेषज्ञ डॉ. गौरव खारया, क्लिनिकल लीड, सेंटर फॉर बोन मैरो ट्रांसप्लान्ट एण्ड सैल्युलर थेरेपी, सीनियर कन्सलटेंट- पीडियाट्रिक हेमेटोलोजी- ओकांलोजी एवं इम्युनोलोजी ने बताया कि सिकल सैल रोग खून का आनुवंशिक विकार है, जिसमें व्यक्ति का हीमोग्लोबिन प्रारूपिक एस आकार में दोषपूर्ण होता है। आमतौर पर हीमोग्लोबिन का आकार ‘ओÓ शेप का होता है।
आरबीसी की उम्र तकरीबन 120 दिन
हीमोग्लोबिन शरीर के विभिन्न हिस्सों तक ऑक्सीजन पहुंचाता है। हालांकि इस रोग में हीमोग्लोबिन के दोषपूर्ण आकार के कारण लाल रक्त कोशिकाएं एक-दूसरे के साथ जुड़कर क्लस्टर बना लेती हैं और रक्त वाहिकाओं में आसानी से बह नहीं पातीं। ये क्लस्टर धमनियों और शिराओं में बाधा बन जाते हैं और जिसकी वजह से ऑक्सीजन से युक्त रक्त का प्रवाह शरीर में ठीक से नहीं हो पाता। इससे व्यक्ति कई जटिलताओं का विकार हो जाता है। सामान्य आरबीसी की उम्र तकरीबन 120 दिन होती है, जबकि ये दोषपूर्ण सैल ज्यादा से ज्यादा 10-20 दिनों तक जीवित रह पाते हैं।
क्रोनिक एनिमिया का शिकार
इस वजह से शरीर में हीमोग्लोबिन से युक्त कोशिकाओं की संख्या गिरती चली जाती है और व्यक्ति क्रोनिक एनिमिया का शिकार हो जाता है। इस रोग से पीडि़त मरीज़ के खून में पर्याप्त ऑक्सीजन न होने के कारण उसे जल्दी थकान होती है। भारत में रोग के बारे में बात करते हुए डॉ. खारया ने कहा हाल ही में जारी रिपोट्र्स के अनुसार इस रोग के बोझ की बात करें तो भारत दूसरे स्थान पर है। सिकल सैल एलील फ्रिक्वेंसी पर आधारित मॉडल विभिन्न प्रकार की आबादी में रोग के जि़ला-वार वितरण पर रोशनी डालते हैं।
पांचवें महीने में रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं
हालांकि यह रोग बहुत पुराने समय से ज्ञात है, लेकिन इस पर ज़्यादा काम नहीं किया गया है। यह अफ्रीकी, अरबी और भारतीय आबादी में अधिक पाया जाता है। हमारे देश में यह ‘सिकल सैल बेल्टÓ में अधिक पाया जाता है, जिसमें मध्यम भारत का डेक्कन पठार, उत्तरी केरल और तमिलनाडू शामिल है। यह छत्तीसगढ़, बिहार, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश के पड़ोसी इलाकों में भी पाया जाता है। डॉ खारया ने लोगों को रोग के विभिन्न लक्षणों के बारे में जानकारी दी। यह रक्त का आनुवंशिक विकार है, इसलिए जब नवजात शिशु पांच महीने का होता है, तभी उसमें रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं जैसे त्वचा का पीला पडऩा और आखों का सफेद होना। सिकल सैल के मरीज़ को जल्दी थकान होती है, उसके हाथों-पैरों में सूजन और दर्द होता है। सिकल सैल के मरीज़ों को बार-बार संक्रमण की संभावना होती है। उम्र बढऩे के साथ-साथ उनका विकास ठीक से नहीं हो पाता और उन्हें देखने में समस्या हो सकती है।
जन्मपूर्व निदान से जीन को रोका जा सकता है
रोग की रोकथाम और मरीज की देखभाल के बारे में बताते हुए डॉ खारया ने कहा, व्यक्ति में सिकल सैल एनिमिया की स्थिति को जानना बहुत महत्वपूर्ण है। हर अविवाहित व्यक्ति को अपनी जांच द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसने सिकल सैल एनिमिया का जीन तो नहीं या क्या उनमें यह दोषपूर्ण जीन है। ताकि वे अपने जीवनसाथी का चुनाव करते समय या गर्भावस्था की योजना बनाते समय उचित सतर्कता बरत सकें। जिन परिवारों में सिकल सैल रोग का इतिहास हो उनमें जन्मपूर्व निदान के द्वारा इस जीन को भावी पीढिय़ों में जाने से रोका जा सकता है।
नियमित टीकाकारण बहुत जरूरी
सिकल सैल विकार से पीडि़त बच्चों की देखभाल की बात करें तो उनके लिए नियमित टीकाकारण बहुत जरूरी है, इन बच्चों को बहुत अधिक उंचाई या बहुत अधिक तापमान से बचाना चाहिए, इनके हाइड्रेशन और स्वस्थ जीवनशैली का खास ध्यान रखना चाहिए। इन्हें नियमित रूप से उचित दवाएं जैसे हाइड्रॉक्स्युरिया, पैनिसिलिन, फोलिक एसिड और एंटीमलेरियल प्रोफाइलेक्टिसस आदि देनी चाहिए। बहुत ज़्यादा जटिलता के मामले में तुरंत डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।