नई दिल्ली। बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में 25 साल के युवक का बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन सफल रहा। दिल्ली के निखिल बरवाल को दुर्लभ आनुवांशिक बीमारी से लडऩे और जोखिमपूर्ण ट्रांसप्लांट प्रक्रिया से गुजरने के लिए प्रेरित किया।
थैलसीमिया मेजर से पीडि़त
निखिल बचपन से ही थैलसीमिया मेजर (टीएम) से पीडि़त थे क्योंकि उनके माता-पिता को थैलसीमिया था। वह नियमित तौर पर ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराकर इस स्थिति को संभाला करते थे लेकिन शादी के बाद वह अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो गए। अगली पीढ़ी में यह विकार जाने की संभावना उनके दिमाग से कभी भी नहीं हटती थी। अपनी सकारात्मक जांचों के परिणामों से प्रोत्साहित होकर, उन्होंने बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में बेहद जोखिमपूर्ण बोन मैरो ट्रांसप्लांट कराने का फैसला किया।
बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल
बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में विशेषज्ञों से मिले आरंभिक परामर्शों से निखिल जान गए कि वह न केवल अपनी इस स्थिति का इलाज करा सकते हैं बल्कि भावी पीढ़ी को भी आगे की यातनाओं से बचा सकते हैं। उन्हें यह सुझाया गया था कि बोन मैरो में पाई जाने वाली खास प्रकार की स्टेम सेल्स का ट्रांसप्लांटेशन थैलसीमिया मेजर से पीडि़त मरीज के लिए एकमात्र उपचारात्मक विकल्प रहा है।
बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल के बोन मैरो ट्रांसप्लांट विभाग के निदेशक एवं वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. धर्मा चौधरी ने कहा कि मरीज की उम्र को देखते हुए यह निश्चित तौर पर काफी कम सफलता दर वाला एक बेहद चुनौतीपूर्ण केस था। डोनर के रूप में उनके भाई का अच्छा मैच मिल गया था और हम सफलतापूर्वक यह बोन मैरो ट्रांसप्लांट करने में सक्षम हुए।
इम्यून सप्रेसेंट चिकित्सा
उन्होंने कहा कि ट्रांसप्लांट के बाद भी उन्हें ग्राफ्ट वर्सेस होस्ट डिसीज (जीडीएचडी) के साथ ही इम्यून सप्रेसेंट चिकित्सा के लिए व्यापक तौर पर मॉनीटरिंग पर रखा गया था। उन्हें पहले तीन महीने हर दो हफ्ते में ओपीडी में आकर जांच कराने के लिए कहा गया था और जिसे बाद में एक माह में एक बार कर दिया गया। आज वह इम्यून-सप्रेसेंट की जरूरत के बिना ट्रांसफ्यूजन से मुक्त एक आम जिंदगी जीते हैं।