लखनऊ। आईएमए भवन में गुरुवार को विश्व सिजोफ्रेनिया दिवस पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला की शुरुवात आईएमए के अध्यक्ष डॉक्टर सूर्यकांत ने की। उन्होंने कहा कि बीमारी दो तरह की होती है, एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। आज के दौर में प्रतियोगिता के बढ़ते चलन के चलते तनाव कर स्थिति बढ़ रही है। इस दौरान डॉक्टर जेडी रावत ने भी अपने विचार सिजोफ्रेनिया को लेकर रखा।
वहीं कार्यशाला में केजीएमयू से आए मानसिक रोग विशेषज्ञ पीके दलाल ने कहा कि यह एक प्रमुख बीमारी है। इस बीमारी के लक्षण हैं कि मरीज सत्यविहीन और तथ्यविहीन बातें करता है। भ्रम की स्थिति बनी रहती है और नकारात्मक सोच की बातें करता है। अगर ऐसा है तो मरीज को तुरंत डॉक्टर के पास लेकर जांए।
लक्षण को पहचानें
इस दौरान आईएमए के ज्वाइंट सेक्रेटरी डॉक्टर एम अलीम सिद्धकी ने कहा कि मरीज अक्सर अपने आप से बात करता है। परिवार से कटा रहता है। आनुवांशिक कारण से भी यह बीमारी हो सकती है। अगर ऐसे लक्षण हैं तो परेशान होने की जरूरत नहीं है, इसका इलाज संभव है। यहां तक कि 5 मरीज में से 4 का इलाज अच्छी तरह से हो सकता है और वह आम लोगों की तरह ही रह सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि झाडफ़ूंक के चक्कर में ना रहें। तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें। अगर मां-पिता में से किसी एक को सिजोफ्रेनिया है तो शिशु में भी यह बीमारी होने की संभावना महज 1 से 15 फीसदी तक ही है। इसके अलावा अगर मां-पिता दोनों ही इस बीमारी से ग्रसित हैं तो भी शिशु में इसके होने की संभावना महज 30 फीसदी ही होती है।
ऐसा भी हो सकता है
ऐसे मरीजों में नशे की लत बढ़ जाती है। नशा भी एक कारण है सिजोफ्रेनिया बीमारी का। ऐसा भी देखने में आता है कि ऐसे मरीज आत्महत्या भी करते हैं। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में एक फीसदी लोग सिजोफ्रेनिया (मानसिक रोग) से पीडि़त हैं और इनमें से 10 से 15 फीसदी लोग आत्महत्या का कदम उठाते हैं।
रोज 10 रुपए का खर्चा
केजीएमयू के मानसिक रोग विशेषज्ञ पीके दलाल ने कहा कि ऐसे मरीजों को रोज 10 रुपए की एक गोली खानी होती है। इस गोली के नियमित सेवन से मरीज आसानी से ठीक हो सकता है। अगर दवा खाने में लापरवाही हो रही है तो यह खतरनाक साबित हो सकता है। लोगों में जागरुकता ना होने के अभाव में मरीज को डॉक्टर तक लाने में बहुत देर हो जाती है। इसलिए लापरवाही ना बरतें।
साथ देना जरूरी है
ऐसे मरीजों को परिवार का साथ देना जरूरी है। ऐसा ना हो कि मरीज को कोई काम ही ना करने दिया जाए। उससे सामान्य व्यवहार करें। रोज दवार्द की खुराक उसे दें। डॉ. दलाल ने कहा कि ऐसे मरीजों में एक तिहाई लोग ठीक हो जाते हैं। एक तिहाई लोगों पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
दवाई नहीं तो एक माह में एक इंजेक्शन
मरीज मानसिक रूप से ठीक नहीं होता, ऐसे में दवा लेने में मरीज लापरवाही कर सकता है। ऐसे मरीजों को समझाकर एक माह में एक इंजेक्शन लगाने की सलाह दी जाती है।
गर्भावस्था के दौरान शिशु को चोट लगने पर स्किजोफ्रेनिया
गर्भावस्था के दौरान शिशु को चोट या ट्रामा बर्थ (प्रसव के समय शिशु को चोट लगना) से भी उसमें आगे जाकर सिजोफ्रेनिया की संभावना रहती है। गर्भावस्था के दौरान इंट्रायूटेराइन इंफेक्शन (गर्भाश्य का संक्रमण) होने वाले शिशु को पागल बना सकता है। अगर गर्भवती को बुखार रहता है या किसी भी तरह का वायरल इंफेक्शन होता है तो जाकर शिशु को इस बीमारी के होने की संभावना होती है।