लखनऊ। नपुंसकता, मधुमेह, नेत्ररोग, अतिसार, ज्वर, सूजन आदि औषधि प्रयोग की जाने वाली सतावर शोभाकारी लताओं के साथ खेती के लिए भी काफी फायदेमंद है। जल निकासी वाले खेतों में इसकी खेती करके किसान औषधि के साथ एक हेक्टेयर क्षेत्र में करीब ढाई लाख रुपये की शुद्ध कमाई कर सकता है। इसकी खेती की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें रोग नहीं लगते और इसकी बाजार में बिक्री के लिए भी किसानों को चक्कर नहीं लगाना पड़ता। खेत में ही दवा कंपनियों के बिचौलिये पहुंचकर खरीद लेते हैं।
कानपुर में है बाजार, खेत में पहुंचते हैं बिचौलिये
इस संबंध में कानपुर कृषि विश्व विद्यालय के वानिकी विभाग के प्रोफेसर मुनीष कुमार के अनुसार कि सतावर की खेती की ओर किसानों का रूझान बढ़ा है। इस समय यूपी में शाहजहांपुर, बरेली, लखनऊ, कानपुर में बहुतायत में किसान खेती कर रहे हैं। पहले इसके बाजार में परेशानी थी। अब कानपुर और दिल्ली में इसका बाजार उपलब्ध है। इसके अलावा पंतजलि सहित कई आयुर्वेदिक कंपनियां जानकारी होने पर किसानों से खेत में ही बिचौलियों के माध्यम से कांटेक्ट कर लेती हैं, जिससे किसानों को उत्पाद बेचने में कोई दिक्कत नहीं होती। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्य में साल के मिश्रित वनों में सतावर प्राकृतिक रूप से पायी जाती है।
मानसिक रोग व नपुंसकता भी करता है दूर
हिन्दी संस्थान से रघुवीर प्रसाद त्रिवेदी पुरस्कार से पुरस्कृत प्रोफेसर मुनीष कुमार ने च्हिन्दुस्थान समाचारज् से विशेष बातचीत में बताया कि इसकी कंदिल जड़े मधुर एवं रसयुक्त होती है। इसका उपयोग नपुंसकता, मधुमेह, नेत्ररोग, अतिसार, मूत्र सम्बंधी रोग, ल्यूकेरिया, ज्वर, सूजन आदि में होता है। यह शरी की कमजोरी दूर कर मानसिक रोगों को दूर करती है। सतावर की जड़ों का प्रयोग महिलाओं में प्रसव के बाद दूध में वृद्धि के लिये होता है। आयुर्वेद में इसका उपयोग हृदय सम्बंधी रोगों में तथा यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसकी जड़ो का प्रयोग यकृत एवं गुर्दे की बीमारियों के निदान में किया जाता है।
दोमट मिट्टी है उपयुक्त
गोंडा में उपनिदेशक अनीस श्रीवास्तव ने च्हिन्दुस्थान समाचारज् से बताया कि इसके लिए दोमट एवं हल्की बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है। यह अम्लीय एवं क्षारीय तथा कम उर्वर भूमियों में भी उगाया जा सकता है। जल निकासी का उत्तम प्रबंध होना चाहिए। सतावर की फसल को विभिन्न मौसम एवं जलवायु में उगाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि बुवाई से पूर्व 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 10 टन सड़ी हुयी गोबर की खाद प्रति हेक्टेअर की दर से मिलाकर खेत की जुताई पुन: करनी चाहिए।
जुलाई से अगस्त के बीच करें पौधरोपण
प्रोफेसर मुनीष कुमार ने बताया कि जुलाई-अगस्त माह में जब पौध की ऊंचाई 10 सेमी0 की हो जाए, उस समय पौध को 45-45 सेमी. के अन्तराल पर बने गड्ढों में रोपित कर देना चाहिए। रोपण के तुरन्त बाद पौधों में हल्का पानी देना चाहिए। वर्षाकालीन फसल होने के कारण सतावर को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा कम होने की स्थिति में शुरुआत के दिनों में प्रति सप्ताह और बाद के महीने में एक बार हल्की सिंचाई करने से अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।
यदि रोग लगे तो करें दवा का छिड़काव
आमतौर पर सतावर की फसल पर कीटों एवं रोग का प्रकोप नहीं होता है। लेकिन कभी कभी ग्रासहोपर कीट का आक्रमण होता देखा गया है। इसके अतिरिक्त इसकी जड़ों में गलन रोग हो जाता है, जिसके कारण जड़ के अन्दर का भाग सड़ जाता है। इसके निदान के लिए किसी फॅफूदीनाशक दवा का फसल पर प्रयोग करना चाहिए। अच्छी तरह सूखी हुयी जड़ों का भण्डारण सुरक्षित एवं सूखे स्थान पर बोरों में भरकर करते हैं, हल्का उबालकर छिकले निकाल कर सुखाया जाता है।
लागत और शुद्ध लाभ
अच्छी फसल होने की दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्र से 60-70 टन ताजी जड़े प्राप्त होती हैं, जो सूखने के बाद करीब 6-8 टन रह जाती है। भूमि तैयारी, बीज, गोबर की खाद रोपाई आदि मिलाकर इसकी खेती में प्रति हेक्टेयर 77000 के लभगभ हो जाता है, जबकि व्यय को कम करने के बाद शुद्ध लाभ 2,50,000 रुपये हो जाता है।